500 पन्नों की किताब और बस्ते का बोझ : उत्तराखंड शिक्षा विभाग की दोहरी नीति

 

📚 500 पन्नों की किताब और बस्ते का बोझ : उत्तराखंड शिक्षा विभाग की दोहरी नीति


🟡 हाइलाइट्स

  • कक्षा 6 की विज्ञान की किताब 500 पन्नों की, वजन 1.25 किलोग्राम
  • शिक्षा विभाग ने बस्ते का वजन 3 किलो तक तय किया, पर किताबें ही भारी
  • द्विभाषी किताबों से पन्नों की संख्या लगभग दोगुनी
  • कॉपी, लंचबॉक्स और पानी की बोतल मिलाकर बस्ता 8 किलो तक
  • बच्चों की रीढ़ और मानसिक सेहत पर असर डालने की आशंका
  • निशुल्क कॉपियां नहीं मिलीं, आगे वजन और बढ़ेगा

उत्तराखंड में स्कूली शिक्षा को आधुनिक और समावेशी बनाने की कवायदों के बीच, एक नई बहस ने जन्म लिया है — बस्ते के वजन का अत्यधिक बोझ। कक्षा छह के छात्रों के लिए जारी विज्ञान की 500 पेज की द्विभाषी पुस्तक, जिसका वजन 1.25 किलोग्राम है, इस बहस का मुख्य कारण बनी है। यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब विभाग द्वारा खुद तय किए गए बस्ते के मानक इससे मेल नहीं खाते। सवाल यह है कि क्या शिक्षा विभाग खुद ही अपने बनाए नियमों का उल्लंघन कर रहा है?


🧠 द्विभाषी किताबें: क्या लाभ, क्या नुकसान?

शिक्षा विभाग ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एक ही किताब छापने का निर्णय किया। उद्देश्य था कि बच्चों को भाषा की बाधा से मुक्त किया जाए, लेकिन इसका परिणाम यह निकला कि पन्नों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई।

एकल भाषा में जहां किताब 250 पन्नों की होती थी, वहीं द्विभाषी संस्करण ने उसे 500 पन्नों तक पहुँचा दिया। इसका असर सीधा बच्चों के बस्ते के वजन पर पड़ा है।


⚖️ मानकों और हकीकत के बीच बढ़ता फासला

शिक्षा विभाग के अनुसार विभिन्न कक्षाओं के लिए बस्ते का अधिकतम वजन तय किया गया है:

कक्षाअधिकतम बस्ते का वजन (किलोग्राम में)
पूर्व-प्राथमिकबस्ता मुक्त
1-21.6 से 2.2
3-51.7 से 2.5
6-72.0 से 3.0
82.5 से 4.0
9-102.5 से 4.5
11-123.5 से 5.0

लेकिन वर्तमान में कक्षा छह के छात्रों का बस्ता इन मानकों से काफी अधिक भारी हो चुका है। यदि विज्ञान की अकेली किताब ही 1.25 किलोग्राम की है, तो शेष नौ विषयों की किताबें मिलाकर वजन 5 किलोग्राम से ऊपर पहुंच रहा है।


👨‍🏫 शिक्षकों की चिंता : जमीन पर क्या हो रहा है?

अनेक स्कूलों के शिक्षक इस स्थिति से चिंतित हैं। वे कहते हैं कि पुस्तकें तो भारी हैं ही, ऊपर से जब बच्चों को कॉपियां, लंच बॉक्स और पानी की बोतल साथ लेकर आना पड़ता है तो बस्ता 7 से 8 किलो तक पहुंच जाता है।

एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया,

“सरकार बच्चों के सर्वांगीण विकास की बात करती है, लेकिन उनके स्वास्थ्य का क्या? रीढ़ की हड्डी पर इतना बोझ सही नहीं है।”


🎒 बस्ते का बोझ : केवल शारीरिक नहीं, मानसिक भी

भारी बस्ते का असर केवल शरीर तक सीमित नहीं है। कई अध्ययनों से यह सामने आया है कि अत्यधिक वजन वाले बस्ते बच्चों में तनाव, थकान, और स्कूल के प्रति नकारात्मक भावनाएं उत्पन्न करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि 8 से 12 वर्ष की उम्र में शरीर विकासशील होता है, ऐसे में अत्यधिक वजन रीढ़ की समस्याएं, हाथ-पैरों में दर्द और मानसिक दबाव बढ़ा सकता है।


🧾 बिना कॉपी के पढ़ाई?

इस साल अभी तक सरकारी स्कूलों में बच्चों को निशुल्क कॉपियां नहीं मिली हैं। विद्यार्थी केवल एक या दो कॉपियों से काम चला रहे हैं। शिक्षकों का कहना है कि जैसे ही कॉपियां बंटेंगी, बस्ते का बोझ और बढ़ेगा।


📌 11वीं की किताबें भी कम नहीं भारी

यह समस्या केवल जूनियर कक्षाओं तक सीमित नहीं है। कक्षा 11वीं की जीव विज्ञान की किताब भी 500 पृष्ठों की है। इसका मतलब, उच्च कक्षाओं के बच्चों के बस्ते का बोझ भी काफी बढ़ चुका है।


🔍 प्रशासन का जवाब : समाधान की तलाश

माध्यमिक शिक्षा निदेशक डॉ. मुकुल कुमार सती ने माना कि द्विभाषी किताबों के कारण पन्नों की संख्या में वृद्धि हुई है।
उन्होंने कहा:

“दो भाषाओं में किताब होने से पन्नों की संख्या बढ़ गई है। हम बस्ते का बोझ कम करने के प्रयास कर रहे हैं।”

लेकिन यह प्रयास जमीन पर कब दिखेंगे, यह स्पष्ट नहीं है।


🧩 क्या यह तकनीकी समाधान का समय है?

  • क्या डिजिटल शिक्षा की ओर कदम बढ़ाना अब ज़रूरी हो गया है?
  • क्या बच्चों को टैबलेट या ई-बुक्स जैसे हल्के विकल्प दिए जा सकते हैं?
  • क्या पाठ्यक्रम को संक्षिप्त और प्रासंगिक बनाने की जरूरत है?

इन सवालों पर गंभीर चर्चा अब आवश्यक है।


गांवों  में हालात ज्यादा खराब

नैनीताल जिले के दूरदराज गांवों के स्कूलों में स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण है। यहां बच्चों को कच्चे रास्तों से होकर स्कूल जाना पड़ता है। भारी बस्ता और लंबा रास्ता उनकी शिक्षा यात्रा को और कठिन बना देता है।


शिक्षा में गुणवत्ता जरूरी, बोझ नहीं

शिक्षा केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास का साधन होनी चाहिए। यदि किताबें ही बोझ बन जाएं, तो उद्देश्य अधूरा रह जाता है। उत्तराखंड सरकार को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा का माध्यम समझदारी और संवेदनशीलता के साथ तय हो, न कि केवल पाठ्यक्रम की लंबाई से।


🔗 संबंधित आंतरिक लिंक:

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🔗 बाहरी स्रोत:

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद – NCERT

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