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राजकीय स्कूलों के विलय पर हाईकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा

राजकीय स्कूलों के विलय पर हाईकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा: शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की संवेदनशील पड़ताल


अभिभावकों की चिंता, सरकार की नीति और न्यायपालिका की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट


उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राजकीय स्कूलों के विलय को लेकर लिए गए निर्णय पर लखनऊ हाईकोर्ट में सुनवाई पूरी हो गई है और अब अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। यह मामला केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि शिक्षा के अधिकार, ग्रामीण बच्चों की पहुंच और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों से जुड़ा हुआ है।


मामला क्या है?

उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश भर के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों को एकीकृत करने की नीति के तहत हजारों राजकीय स्कूलों को बंद या मर्ज करने की प्रक्रिया शुरू की थी। इसका तर्क यह दिया गया कि इससे संसाधनों का समुचित उपयोग होगा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में आसानी होगी। परंतु इस निर्णय के खिलाफ विभिन्न संगठनों और अभिभावकों ने अदालत का रुख किया।

याचिकाओं की पृष्ठभूमि और आपत्तियाँ

शासन के फैसले के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गईं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह निर्णय शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के उल्लंघन में आता है। अधिनियम के अनुसार प्रत्येक बच्चे को अपने मोहल्ले में स्कूल पाने का अधिकार है। स्कूलों के मर्जर से कई गांवों में बच्चों को 3 से 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ेगा, जिससे ड्रॉपआउट की आशंका बढ़ जाएगी।

सरकार की दलीलें

  • सरकार की ओर से पेश वकीलों ने दलील दी कि मर्जर से शिक्षकों की अनुपलब्धता की समस्या हल होगी और कई जगहों पर एक ही शिक्षक द्वारा पूरी कक्षा पढ़ाए जाने की स्थिति सुधरेगी। साथ ही, शिक्षण गुणवत्ता और बुनियादी सुविधाओं के लिए बजट को केंद्रीकृत किया जा सकेगा।
  • मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में पीठ ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद शुक्रवार को फैसला सुरक्षित रख लिया। सुनवाई के दौरान अदालत ने सरकार से कई बार यह स्पष्ट करने को कहा कि मर्जर नीति के क्रियान्वयन से किस प्रकार बच्चों की शिक्षा पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यालयों की दूरी बढ़ने से बच्चियों की शिक्षा विशेष रूप से प्रभावित हो सकती है। पहले जहाँ घर के पास स्कूल होने से माता-पिता बच्चियों को भेजने में संकोच नहीं करते थे, वहीं अब 3–5 किलोमीटर दूर भेजना एक बड़ा निर्णय होगा। ऐसे में यह नीति सामाजिक विषमता को और बढ़ा सकती है।
  • विद्यालय के मर्जर के बाद कई बच्चों को नए स्कूल, नए शिक्षक और नए सहपाठियों के साथ सामंजस्य बिठाना होगा, जिससे उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ सकता है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि अचानक हुए बदलावों से बच्चों के सीखने की प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

शिक्षक संगठनों की प्रतिक्रिया

राजकीय शिक्षक संघों और शिक्षा मित्र संघों ने इस निर्णय को ‘भविष्य के लिए घातक’ बताया है। उनका कहना है कि पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रहे विद्यालयों पर मर्जर के बाद और भी भार पड़ेगा।

बाराबंकी का केस

बाराबंकी जिले के एक गांव में दो स्कूलों के मर्जर के बाद 110 बच्चों को एक ही कमरे में बैठाकर पढ़ाया जा रहा है। वहां सिर्फ दो शिक्षक हैं और मूलभूत सुविधाएं जैसे शौचालय और पीने का पानी भी पर्याप्त नहीं है।

शिक्षा अधिकार अधिनियम की स्थिति

RTE एक्ट 2009 के अनुसार हर 1 किमी पर प्राथमिक विद्यालय और 3 किमी पर उच्च प्राथमिक विद्यालय की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि यह नीति लागू हुई तो यह प्रावधान प्रभावहीन हो सकता है। इस पर कई शिक्षा विशेषज्ञों ने चिंता जताई है।

भविष्य की आशंकाएं

यदि अदालत सरकार के पक्ष में फैसला देती है, तो यह एक बड़ी नीतिगत मिसाल बन सकती है, जिसका प्रभाव अन्य राज्यों पर भी पड़ेगा। वहीं, यदि याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला होता है, तो सरकार को पुनः स्कूलों का संचालन पूर्ववत करना होगा।

विद्यालयों का मर्जर एक प्रशासनिक निर्णय मात्र नहीं है, बल्कि यह राज्य की शिक्षा व्यवस्था की आत्मा को छूने वाला विषय है। इसमें आर्थिक कुशलता और सामाजिक समावेशन के बीच संतुलन बनाना होगा। अब जब उच्च न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रख लिया है, तो नज़रें इस पर टिकी हैं कि क्या न्यायपालिका शिक्षा के संवेदनशील पक्ष को प्राथमिकता देगी या सरकार की प्रशासनिक व्यावहारिकता को।


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🌐 बाहरी स्रोत

उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय वेबसाइट

RTE Act 2009 – भारत सरकार की आधिकारिक जानकारी

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