घरवालों ने फोन नहीं दिया तो 15 वर्षीय छात्र ने की आत्महत्या
हाइलाइट्स
मोबाइल पर गेम खेलने के लिए फोन ना मिलने पर छात्र की खुदकुशी
घटना देहरादून के शास्त्रीनगर खाला क्षेत्र की
15 वर्षीय छात्र राजन कुमार दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था
माता-पिता के बाहर होने के दौरान घर में लिया आत्मघाती कदम
पुलिस और सामाजिक संस्थाओं में छात्र आत्महत्या पर बढ़ती चिंता
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देशभर में किशोरों और युवाओं में डिजिटल गेमिंग और मोबाइल के प्रति बढ़ता आकर्षण पिछले कुछ समय में बेहद गंभीर सामाजिक चुनौती के रूप में उभर कर सामने आया है। इस प्रवृत्ति के चलते घरों में तनाव, संवादहीनता और भावनात्मक खाई बढ़ती जा रही है। हाल ही में उत्तराखंड के देहरादून शहर में सामने आई एक घटना ने एक बार फिर समाज को झकझोर दिया है, जब महज 15 वर्षीय एक छात्र ने माँ-बाप द्वारा फोन न दिए जाने और डांट पड़ने के बाद आत्महत्या कर ली। यह घटना केवल एक परिवार की निजी पीड़ा नहीं, बल्कि आज के समय में अभिभावकों, शिक्षकों और समाज के लिए सोचने का गंभीर विषय है।
पुलिस से प्राप्त जानकारी के अनुसार, घटना देहरादून के शास्त्रीनगर खाला क्षेत्र में बुधवार शाम की है। यहां के निवासी रामवृक्ष साहनी अपने परिवार के साथ रहते हैं। 15 वर्षीय पुत्र राजन कुमार दसवीं कक्षा का छात्र था। बुधवार को राजन के माता-पिता किसी आवश्यक कार्य से घर से बाहर गए थे। घर पर सिर्फ राजन था। शाम को वापस लौटने पर परिजनों ने देखा कि राजन का कमरा अंदर से बंद है। काफी आवाज लगाने के बावजूद जब कोई जवाब नहीं मिला तो दरवाजा तोड़ा गया। अंदर का नज़ारा देखकर माता-पिता स्तब्ध रह गए – राजन छत की टिनशेड से लटका हुआ था। परिजन उसे तुरंत पास के निजी अस्पताल लेकर पहुंचे, लेकिन डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
पुलिस जांच और परिजनों से हुई प्रारंभिक बातचीत में सामने आया कि राजन को मोबाइल पर गेम खेलने की आदत थी। घटना के दिन सुबह परिजनों ने उसे बार-बार गेम खेलने से रोका था और डांट भी लगाई थी। इसी से आहत होकर राजन ने यह आत्मघाती कदम उठाया। पुलिस के अनुसार, राजन पढ़ाई में औसत था, लेकिन हाल में उसकी मोबाइल और गेमिंग की लत बढ़ गई थी, जो माता-पिता की चिंता का कारण थी।
क्यों बढ़ रही हैं ऐसी घटनाएं?
देश भर में बच्चों और किशोरों में मोबाइल, गेमिंग और इंटरनेट की लत बढ़ने के बाद कई बार इसी तरह की घटनाएं प्रकाश में आई हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, किशोर उम्र में भावनाएं बेहद असंतुलित होती हैं। घर या स्कूल में बार-बार डांटने, फोन छीनने या उनसे संवाद न करने से वे खुद को अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। कई बार अवसाद, अकेलापन और असहायता की भावना इतनी गहरे बैठ जाती है कि बच्चे खुद को खत्म करने जैसा चरम कदम उठा लेते हैं।
भारत में किशोरों और छात्रों में बढ़ती आत्महत्या की घटनाएं शिक्षा व्यवस्था, परिवार और समाज को झकझोर रही हैं। बीते कुछ वर्षों में छात्र आत्महत्या के मामलों में चिंताजनक बढ़ोतरी देखी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में छात्रों की मानसिक सेहत और आत्महत्या की रोकथाम के लिए विशेष राष्ट्रीय दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसमें संस्थाओं को मानसिक स्वास्थ्य नीति अपनाने, काउंसिलरों की नियुक्ति और छात्र-छात्राओं की नियमित निगरानी पर जोर दिया गया है।
समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञान विशेषज्ञों का कहना है कि छोटी उम्र के बच्चों में ‘ना’ सुनने की क्षमता कम होती है। वे माता-पिता की डांट-फटकार को व्यक्तिगत अस्वीकार्यता मान बैठते हैं। खासतौर पर एकाकीपन में, घर के भीतर संवाद की कमी से यह समस्या गंभीर रूप ले लेती है।
पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर बसंत विहार प्रदीप रावत के अनुसार, किशोरों में संवेदनशीलता अधिक होती है। ‘सिर्फ एक बार डांटने या फोन ना देने के कारण बच्चे ऐसा कठोर कदम उठाएंगे, यह हर परिवार के लिए सतर्क करने वाला संकेत है।’ वहीं, मनोचिकित्सक डॉ. मधुरिमा गुप्ता का कहना है, ‘समस्या सिर्फ मोबाइल या डांटने की नहीं है, असल समस्या संवाद की कमी, भावनात्मक सहारा और कुशल मार्गदर्शन की है।’
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ती छात्र आत्महत्याओं पर चिंता जताई है और शिक्षण संस्थानों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर दिशा-निर्देश अनिवार्य किए हैं। इनमें मानसिक स्वास्थ्य नीति, काउंसिलिंग, भावनात्मक सहायता और परामर्शदाताओं की उपस्थिति जैसे नियम शामिल हैं। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे छात्रों की मनोदशा को समझने और उनमें आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए विशेष अभियान चलाएं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में हर साल हजारों किशोर विभिन्न कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश के पीछे पारिवारिक तनाव, पढ़ाई का दबाव, डिजिटल लत और अकेलापन प्रमुख कारण हैं।
समाधान की राह
अभिभावक चाहें तो बच्चों से डिजिटल गतिविधियों पर संयम बरतने के बारे में खुलकर चर्चा करें। ‘ना’ सिर्फ मना करने के लिए ही नहीं है, बल्कि बच्चों को सुरक्षित और जिम्मेदार डिजिटल जीवन जीने के लिए प्रेरित करने का एक तरीका हो सकता है। संवाद में पारदर्शिता और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार अत्यंत आवश्यक है।
मानसिक स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ न करें
मनोविशेषज्ञों के मुताबिक, बच्चों के भावनात्मक मुद्दों और तनाव के लक्षणों को नजरअंदाज करने के बजाय तुरंत किसी काउंसिलर या विशेषज्ञ की सहायता लें। स्कूलों, संस्थानों में नियमित रूप से मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।
समाज हर बच्चे को यह विश्वास दिलाए कि वे अकेले नहीं हैं। गांव-शहर, बड़े-छोटे, सभी जगह मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सहयोगी माहौल बनाने की जरूरत है। यदि कोई बच्चा या किशोर उदास, अकेला या हताश दिखता है तो उसे संवाद और सहयोग दें।
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तथ्य
भारत में 2025 में छात्र आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज की गई।
डिजिटल डिवाइस और मोबाइल गेमिंग की लत छात्रों व अभिभावकों के लिए चुनौती बन गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में छात्र आत्महत्या रोकने की दिशा में 15 कार्यनीतिगत निर्देश दिए हैं जिनपर सबको अमल करना होगा।
सरकार और समाज दोनों को मिलकर किशोरों की मानसिक सेहत के लिए गंभीर कदम उठाने होंगे।